जब श्रीरामचन्द्र सीता और
लक्ष्मण के साथ वनवास के लिए अयोध्या से निकल कर साकेतनगर, गंगातट, महर्षि-भरद्वाज
आश्रम, यमुनातट, चित्रकूट, महर्षि-अगस्त्य आश्रम आदि से होकर पंचवटी पहुँचते है। वहाँ कुछ दिन वे प्रकृति के
आंगन में आराम से रहे। एक दिन शूर्पणखा वहाँ आ पहुँच थी है। तब लक्ष्मण-शूर्पणखा के बीच वाद-विवाद
होता है । आइये, जान लें उस के बारे में छंद बाते -
पंचवटी खंडकाव्य होने पर भी
कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने इस में आदि से अंत तक संवाद-शैली का प्रयोग किया है,
इसलिए यह कृति नाटक का आनंद देती है॥
पंचवटी के प्रारंभ में
लक्ष्मण एकाकी बैठकर स्वगत संवाद करते है, शूर्पणखा का रंग-प्रवेश होते ही संवाद
के साथ कथा भी आगे बढती है॥
लक्ष्मण सही जगह पर सही
शब्दों का प्रयोग करते है, शूर्पणखा संवाद शुरु करते ही वह लक्ष्मण को उलाहना
देती है -
“शूर वीर होकर अबला को देख तुम
चकित हुए।
प्रथम बोलना पडा मुझे ही, पूछी तुमने
बात नही॥”
लक्ष्मण
का उत्तर तर्कपूर्ण था। तब उस जगह पर भाषण
में चतुर शूर्पणखा की जीभ फिसल जाती है।
अनजाने में ही वह इस नाटक के अंत
की भविष्यवाणी सी करती है॥
शूर्पणखा
का हर सवाल का जवाब लक्ष्मण तर्कपूर्ण ही देते है। शूर्पणखा तब साम की नीति अपनाती है। तो लक्ष्मण अपनी शालीनता में उत्तर देते है॥
बार-बार
शूर्पणखा के प्रश्नों का उत्तर लक्ष्मण संभाल कर देते आये थे लेकिन शूर्पणखा वाद
विवाद पर उतर आई। लक्ष्मण स्पष्ट शब्दें में कहे -
“हाँ नारी! तुम भ्रम में
पडी हुई हो। यह प्रेम नही है, यह मोह है। तुम सावधान रहो!मैं पर-पुरुष हूँ॥”
इस तरह हम देखते है कि
पंचवटी खंडकाव्य में लक्ष्मण-शूर्पणखा के बीच संवाद चलता है। लक्ष्मण मर्यादा का
उल्लंघन नही करते। लेकिन शूर्पणखा अपने को वाचाल समझती है, दंभ और अधिकार के मद
में बोलते हुए वह उचित-अनुचित का विवेचन
नही करती।
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