गुरु गोविन्द दोऊ खडे, काके
लागूँ पाय ।
बलिहारी गुरू आपने, गोविन्द
दियो मिलाय ॥
आप यह दोहा पढकर जान गये
होंगे कि आज मैं इस दोहे के बारे में क्यों लिख रही हूं।
जैसे कि आप सब जानते है कि
आज गुरुपूर्णिमा है और इस दोहे का सही मतलब और इस्तेमाल इस दिन से ज्यादा और कब उचित
होगा।
इस दोहे में कबीरदास ने गुरू
कि महिमा और गुरू को भगवान से भी आगे का स्थान देख कर सरल रूप में गुरू को श्रद्धा
और भक्ति के साथ भगवान से पहले पूजने को कहते हैं।
आइए, आज का दिन इस दोहे को
हमें भेंटने वाले कबीरदास- जी के बारे में छंद बाते जान लें,
कबीरदास संत
कवियों में सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं।
उनका जन्म सन् 1398 ई.में हुआ था।
कहा जाता कि उनका जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था और उस विधवा
ने लोकलाज के डर से उन्हें त्याग दिया था।
तब नीरू - नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने उनका पालन - पोषण किया। कबीर गृहस्थ थे। उनकी पत्नी का नाम लोई और पुत्र तथा पुत्री का
नाम कमल और कमाली था। उनकी मृत्यु सन् 1518 ई. में हुई।
कबीर पढे - लिखे
नहीं थे। किंतु साधु - सांगत्य और देशाटन से प्राप्त ज्ञान के आधार पर उन्होंनें
लोगों को उपदेश दिया था। उनके शिष्यों ने
उनके उपदेशों के संकलन किया था। उस संकलन
का नाम 'बीजक' है। बीजक के तीन भाग है, 1. साखी, 2.सबद, 3. रमैनी।
'साखी' में दोहे
और सोरठा हैं। उसमें उपदेश की बातें मिलती
हैं। 'सबद' में उनके सिद्धांतों का प्रतिपादन मिलता है।
'रमैनी' में गूढ - शैली
लक्षित होती है।
कबीरदास निर्गुण - भक्ति के प्रचारक थे। उनकी भक्ति का आधार
ज्ञान था। उन्होंने अंध - विश्वास, कुरीतियों, बाह्यडंबरों का डटकर खण्डन किया।
उन्होंने जाति - पाँति में विश्वास नही किया।
कबीर उच्च कोटि के रहस्यवादी थे। उन्होंने आत्मा को स्त्री तथा परमात्मा को
परमपूरुष का रूप देकर आध्यात्मिक रहस्यवाद की उच्च कोटि की रचनायें की।
कबीर की भाषा सधुक्कडी कहलाती है। उसमें
खडीबोली, ब्रज, पूर्वी हिन्दी, अवधी, पंजाबी आदि बोलियों का सम्मिश्रण मिलता है।
उनकी भाषा में अनुभूति की सच्चाई एवं तीव्रता मिलती है। उनकी शैली गेय - मुक्तक
शैली है। उस में ओज है। उनकी वाणी में उनकी निर्भीकता, अक्खडपन आदि गुण मिलते हैं।
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