प्रेम माधुरी के अंतर्गत
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के व्रजभाषा के रचित 4 पद संकलित हैं, जो कृष्णलीला से
संबंधित है।
इस में गोपियाँ उद्धव को यह
समझाने का प्रयास कर रही कि प्रेम में मन अपने वश में नही रहता, बल्कि प्रिय के वश
में रहता है यह बात वह पहला पद में कहती है।
दूसरे पद में भी गोपिकाएँ
अपनी प्रेमगत विवशता को बता रही है। उनका कहनना है कि हे उद्धव, आपका यह कथन सत्य
है, कि ब्रह्म सर्वव्यापी और सर्वत्र विद्यमान है, परं तु हम कृष्ण के विरह में इस
प्रकार व्याकुल हैं कि यह ज्ञान हमारी समझ में नहीं आता।
तीसरे पद में भी प्रेम की
एकाग्रता और अनन्यता का प्रतिपादन किया गया है। जिस प्रकार एक म्यान में दो
तलवारें नहीं रह सकतीं, उसी प्रकार यह संभव नहीं है कि जिन नेत्रों में कृष्ण की
माधुरी बसी हुई है, उन्में कोई और छवि बस सके।
चौथे पद में कवि भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र ने बृन्दावनवासी उन मुनियों के सौभाग्य का वर्णन किया है, जो कृष्ण की
मधुर छवि की उपासना के लिए पक्षी बनकर निरंतर उनके दर्शन करते हैं और उनकी वंशी
ध्वनि तथा मुख की वाणी को सुनते रहते हैं। कवि कहते हैं की यह विधि का उल्टा विधान
है कि हमें वह सौभाग्य प्राप्त नहीं है, जो बृन्दावनवासी मुनियों को सहज उपलब्ध
है।
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