प्रेमचन्द जी उपन्यास सम्राट और प्रतिभाशाली साहित्यकार है। निर्मला उन का लिखा अनुपम उपन्यास है।भारत की दुःखी जनता प्रेमचन्द जी की रचनाओॆ की विषय वस्तु है। जिन लोगों को रोज समाज में देखते है वे ही उन की कहानियों में मिलते है। उन्हों ने मानव-जीवन के सभी रूपों के बारे में लिखा है। इस उपन्यास की नायिका निर्मला है। निर्मला इस उपन्यास का केन्द्रीय पात्र है। उस की जीवन-गाथा की डोर से बँधी कथा आगे बढती चली जाती है और कथा का अन्त निर्मला की मौत से होता है।
निर्मला वकील उदयभानुलाल की पुत्री है। निर्मला सबसे पहले पाठकों के सामने पन्द्रह साल की एक युवती के रूप में आती है। निर्मला भारतीय संस्कार के युक्त युवती है, परन्तु उसकी विरोध और प्रतिरोध उसके चरित्र को विशिष्ट बनाता है। वह अपनी स्थिति के लिए अपनी माँ ओर पूरे समाज को जिम्मेदार मानती है।
उदयभानुलाल की अकाल मृत्यु के कारण निर्मला का जीवन अस्तव्यस्त हो जाता है। आखिर तोताराम नामक चालीस साल के व्यक्ति के साथ उसका विवाह हो जाता है। पिता जैसे व्यक्ति को पति के रूप में पानेवाली निर्मला अभागिनी कहलाती है।
तोताराम के तीन बेटे हैं - मंसाराम, जियाराम, सियाराम। तोताराम की बहन रुक्मिणी उसी घर में रहती है। रुक्मिणी, लडकों से विमाता निर्मला के बारे में भला-बुरा कहने लगती है, तो निर्मला दुःखी हो जाती है।
निर्मला एक सुन्दर औरत है और उत्तम पत्नी भी। पन्द्रह साल की उम्र में मातृत्व का बोझ अपने सिर पर रख लेती है। निर्मला एक सामान्य स्त्री है। इसलिए उसपर परिस्थितियों का प्रभाव पडता है और वह धीरे-धीरे असामान्य होती चली जाती है।
उपन्यास के अन्त में प्रेमचन्द ने जिस तरह निर्मला की मौत का चित्रण किया है, उससे प्रेमचन्द क्या कहना चाहते हैं यह स्पष्ट हो जाता है। प्रेमचन्द निर्मला की बलि देकर यह दिखाना चाहते हैं कि मध्यवर्ग यदि इसी तरह अपनी बेटियों की शादियाँ करता रहा तो सबकी यही परिणति होगी।
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